एक कवि के घर में
यहाँ दीवारों में चिनी हुई हैं
किताबें और पांडुलिपियां
दराजों में सहेजी गयी हैं
भावनाएं
खूंटियों पर टँगे हैं तमाम दुःख
घड़ी में खालीपन एक लय में
गतिमान है
बोतलों में भरी हुई हैं पीड़ाएँ
कोनों में बची हुई है उलझन भरी
जरा सी जिंदगी
दरवाजों के पीछे टंगे हैं
लोककथाओं के पात्र
यहाँ छत नहीं है
किसी कविता का शीर्षक है
और मैं एक कवि की अनुपस्थिति में
उसकी उपस्थिति को महसूस करते हुए
उसके घर को किसी कविता की तरह
समझने की कोशिश में लगा हूँ...!
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