रसोईघर
रसोईघर
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कभी सोचा है!
क्या होता अगर
नहीं होता रसोईघर ?
कैसे पहचान पाते तुम
अम्मा की आँखों के नीचे
इकट्ठी हुई काली राख
कैसे पहचानते
झुर्रियों के बीच उलझे हुए
काले अतीत को.
तुम कहाँ देख पाते
बच्चों से छुप के रोती हुई
माँओं को,
प्याज काटने के बहाने.
तुम्हें कहाँ पता होता कि
आटे चावल के डिब्बों के बीच
छिपे हुए हैं तमाम लॉकर
जहाँ सहेजी गयी है
तुम्हारी फिजूलखर्ची.
तुम समझ पाते
बहनों की रोटियों के
अचानक गोल होने का कारण
तुम देख पाते उनकी आँखों में
भाप की तरह
पसीजती हुई गंभीरता.
क्या पकड़ पाते तुम
बिस्किट नमकीन के डिब्बों पर
भाई के बचपने के निशान
उसकी शरारतें और चोरियां.
तुम समझ पाते
प्रेमिकाओं की तमाम बातें
जो सब्जी की छौंक के साथ
उलझ गयी हैं
हल्दी नमक के डिब्बों के बीच.
तुम जान पाते क्या
राशन के डिब्बों को भरते भरते
क्यों बढ़ गया पिता के
चश्मे का पावर.
नहीं!
सोचो...सोचो!
खाली पेट क्या तुम लिख पाते
कविता
बिस्तर पर लेटकर.
सोचो! क्या होता अगर
नहीं होता रसोईघर!
- shivam chaubey
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