वे चल रहे हैं।

जिस वक्त हम अपने घरों में
निश्चिंतता की चादर ओढ़े बेशर्मी की नींद सो रहे होते
वे चलते रहते

हम टीवी के सामने बैठे उनकी लाचारी को चबाते हुए ख़बरों की चुस्कियां लेते
वे चलते रहते
हम उनकी बेचारगी पर दुखी होते
वे चलते रहते
हम कहते 'चूतिया हैं साले...सरकार व्यवस्था करेगी न...!'
वे हमारी मूढ़ता पर तरस खाते हुए चल रहे होते

हम तमाम काम कर रहे होते
वे चलते रहते
चलते रहना उनके लिए भूख, प्यास और सांस से ज्यादा जरूरी था
इसलिए वे चलते रहते

चलते वक्त
वे पैरों में बाँध लेते इंसानियत की लाश
उनके कंधे पर होता हमारी नग्नता का बोझ
उनकी आँखों में होती भविष्य को राख कर देने वाली आशंकाएं
उनके होठों पर हमारी मृत्यु की निर्मम हँसी खेल रही होती
वे हमारी सभ्यता पर थूकते हुए चलते
हमारे विचारों और धर्मों को मसलते हुए चलते
वे अपनी औरतों और बच्चों को साथ लेकर चलते
और बताते
कि देखो जीवन के निर्मम क्षणों में भी हमने नहीं छोड़ा किसी का हाथ

उनकी औरतें जो अपने गर्भ में रखे होतीं समूची पृथ्वी और स्तनों में रेगिस्तान
जिनकी साड़ियों पर होते हमारे पाप के दाग
जिनकी पुतलियों में रेंगते अतीत और भविष्य के काले रंग
जो हमने सौंपा था उन्हें उनके काम के बदले में

उनके बच्चे जिन्होंने सात साल की उम्र में ही जान लिया कि रोटी के बदले बेचना होता है जिस्म
कि भट्ठों में गलानी होती हैं हड्डियाँ
कि गटर में उतर निगलना होता है सारे शहर का उगला हुआ जहर
कि उनके बनाये मकानों में ही एकदिन खाया जाता है उनकी बीवियों का गर्म गोश्त
कि उनके बच्चे ही टमाटर की तरह कुचले पड़े होते हैं उन्हीं की बनाई किसी सड़क पर

किताबों के लिए उन्हें ही लुगदी करने होते हैं अपने हाथ
स्कूलों के लिए उन्हें ही चुना जाता है नींव दर नींव
उनकी लाशों पर ही खड़े होते हैं मल्टीप्लेक्स, शॉपिंग मॉल
उनकी बस्तियों की कब्रों पर बसते हैं  नये शहर
उनकी आत्मा को गलाकर ही बनाये जाते हैं इस्पात कारखाने
उनकी आँखें फोड़कर खोदी जाती हैं नदियाँ
उनके पूरे कौम को जोत कर काटी जाती हैं फसलें

ये सब जानते हुए भी कि भोगने के वक्त वे फेंक दिए जाएंगे ख़राब घड़ी की तरह समय से बाहर
दूर खड़े रहेंगे और देखेंगे कि तमाम सफेदपोश गुबरैले ढो कर ले जा रहे हैं उन्हें इतिहास से परे और भोग रहे अपशिष्ट की तरह

ये सब देखने, जानने के बाद भी वे चल रहे हैं
जैसे चलती है आँधियाँ
जैसे चलती हैं आवाज़ें
जैसे चलता है वक्त
जैसे चलती है दृश्य दर दृश्य कोई फिल्म
जैसे चलता है हमारे बदन में रक्त
जैसे चलती हैं लहरें चंद्रमा की ओर
जैसे चलती हैं दीवारों पर चींटियाँ

वे चल रहे हैं क्योंकि वे जानते हैं
अपना भविष्य बनाने के लिए
और अपना इतिहास बचाने के लिए
उन्हें चलना ही पड़ेगा
चलने से ही एक दिन ऐसा तो आयेगा
कि वे अपने हक़ के सीने पर ठकठका के कहेंगे कि ये मेरा है
वर्तमान की चौखट से अंदर आएंगे और बोलेंगे कि हमारी भी यही जगह है

उन्हें चलना है
रिक्त स्थान को भरने के लिए चलना है
उन्हें किसी अच्छी आदत की तरह चलना है
उन्हें चलना है क्योंकि चलना उनके लिए भूख, प्यास और सांस लेने से ज्यादा जरूरी है।

© Shivam chaubey
[13/05/2020]

Comments

  1. बेहतरीन रचना!

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  2. मार्मिक और यथार्थ को प्रस्तुत करती हुई रचना है।अतीत से लेकर वर्तमान तक यही होता आ रहा है।मार्मिकता से तर्कसंगत होने तक। बहुत बधाई शिवम्।

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