और वापस न आया!


24 दिसंबर की शाम है और चर्च स्ट्रीट का गुलज़ार इलाका,  कुछ कुछ दिल्ली के सी पी जैसा। वैसे तो ये तुलना ही अजीब है लेकिन मुझे कुछ हद तक ठीक ही लगी। कुछ शॉपिंग मॉल्स हैं, कुछ स्ट्रीट शॉप्स, महात्मा गांधी रोड मेट्रो और कुछ हॉकर जो खिलौने बेच रहे। हालांकि इनकी संख्या न के बराबर है। इतनी बड़ी दुकानों और मॉल्स के बीच ये वैसे ही लग रहे जैसे बारिश के दौरान समुंदर के ऊपर उड़ रही बूँदें। जिन्हें समुंदर में ही सिमट जाना है। ये सब बाज़ार का हिस्सा है, कई चेहरों में, कई रूपों में। बाज़ार अब हमारे अंदर है, हममें शामिल, हमें अपनी तरफ खींचता हुआ। जितने बाज़ार में हम उससे कहीं ज़्यादा बाज़ार हममें। एक समय था कि बाज़ार से निकलते हुए बाज़ार छूट जाता था लेकिन अब ऐसा नहीं होता। बाज़ार से निकलने के बाद भी बाज़ार जस का तस चिपका रहता है। घर तक आता है, किचन में जाता है, गुसलखाने में पहुँचता है। हमारी नींद में दाखिल होता है और बना रहता है।

पास ही कुछ राजस्थानी लगने वाली औरतें हैं जो झुमके और हार बेच रहीं। उनके देस से दूर उन्हें, उनके मूल रूप में देखना सुखद है। जीविका ने रास्तों की दूरियाँ कम की हैं, मन की दूरियाँ बढ़ाई हैं। जड़ों को छोड़कर बाहर गए लोगों के लिए लौटना मुश्किल हो गया है। स्वर्गीय कवि मंगलेश डबराल लिखते हैं- "मैंने शहर को देखा और मैं मुस्कराया/ वहाँ कोई कैसे रह सकता है/ यह जानने मैं गया/और वापस न आया।"
सड़क की एक तरफ फुटपाथ पर कुछ मिट्टी और मैटल के गमले मिल रहे जो अपनी सजावट के चलते एलीट हो गए हैं। मैं उन्हें देखता हूँ और रख देता हूँ। मेरी जेब छोटी है और उनके मुँह बड़े। बाज़ार जैसे-जैसे बड़ा हुआ है आम आदमी की जेबें छोटी हो चली हैं।

आज गाड़ियों का शोर न के बराबर है बस पैदल चलने वाले लोग हैं। क्रिसमस के चलते ये व्यवस्था की गई है जिस वजह से सांस लेते हुए ईंधन की बू दिमाग में नहीं चुभ रही। मैं यहाँ किताबों की तलाश में आया हूँ। तीन बड़ी और शानदार दुकानें "ब्लॉज़म्स बुक हाउस, बुकवार्म स्टोर और दि बुकहाइव" घूम लेने के बाद गिनती की हिंदी किताबें मिली हैं। अंग्रेजी की हजारों किताबें। हिंदी पाठकों के लिए ऊँट के मुँह में जीरे जितनी भी सामग्री नहीं जो कुछ किताबें हैं भी वो आध्यात्मिक हैं, या इतनी पुरानी हैं कि उनके चेहरे पर हमारे समय का कोई निशान नहीं। इनके रखने की जगह भी उतनी ही उपेक्षित है जितनी "चीफ की दावत की बुढ़िया।" अंग्रेजी बाहुल्य क्षेत्रों में हिंदी क्या सचमुच इतनी बूढ़ी हो गयी है! ख़ैर मैंने कक्षाओं के पाठ के इतर कोई भी अंग्रेजी किताब नहीं पढ़ी। थोड़ी देर ढूंढने पर "सूरजपाल चौहान की तिरस्कृत" और "इस्मत चुगताई की दिल की दुनिया" मिली, मैंने ले ली। फिलहाल यही काफी है कि इतनी मेहनत के बाद खाली हाथ नहीं लौटना पड़ा। वरना थोड़ा दुख रह जाता।
मजे की बात है, दोनों किताबें एक सौ बीस रुपये में ही मिल गयीं जबकि एक हार्ड बाउंड है। शायद न बिकने की वजह से। हाँ, यहाँ अच्छी बात ये है कि बिना माँगे भी खूब सारे बुकमार्क मिल जाते हैं। जो इलाहाबाद में संभव ही नहीं होते। मैं चाहता हूँ किताबों की दुकानें ऐसी हों कि अंदर जाने के बाद निराश होकर न लौटना पड़े। खूब सारे बुकमार्क्स मिलें। जिनपे कवियों और लेखकों के कथन अंकित हों। कविताओं के पोस्टर मिलें और अच्छे थैले। हाँ अच्छी किताबों के साथ कम से कम इतना तो होना ही चाहिए। लेखकों को लेखन से जो भी मिलता हो, पाठकों को तो इतना मिलना ही चाहिए।

मैं किताबें हाथ में लिए बाहर आ गया हूँ। एक मॉल के चबूतरे की सीढ़ियों पर काफी लोग बैठे हैं। कुछ जोड़े में, कुछ अकेले। अभी अभी एक जोड़े ने एक दूसरे को चूम लिया है। अच्छी बात है चूमने के लिए पेड़ों के पीछे जाने से तो बेहतर ही है। चर्च स्ट्रीट 'सेंट मार्क्स रोड और ब्रिगेड रोड' को जोड़ने वाले गलियारे सा है। दोनों तरफ थर्मल स्क्रीनिंग युक्त टेम्पररी गेट बने हुए हैं। जिनमें केवल पैदल ही जाया जा सकता है। आगे एक किनारे पर कुछ इलैक्ट्रिक बाइक और साईकल हैं। जिनकी मदद से इसके काफी चक्कर लगाए जा सकते हैं।

मैं काफी देर से एक चबूतरे पर बैठकर घूंट घूंट चाय उतार रहा। आते जाते लोगों को देख रहा। आवाज़ें सुन रहा। शुरू में यहाँ आया था तो दोस्त खोज रहा था। मुझे लगता रहा कि हर शहर में कोई न कोई दोस्त मिल ही जाता है। अब नहीं खोजता। अकेले घूमता हूँ, शहर खुद ही दोस्त बन जाता है। कुछ साल पहले तक शहरों को अच्छा या बुरा कहने की आदत थी। अब नहीं रही, अब सारे ही शहर अच्छे लगते हैं। उनमें बिताया वक्त अच्छा या बुरा हो जाता है।

थोड़ा आगे चलने पर सड़कों के किनारे-किनारे कुछ पेंटिंग्स बिक रहीं हैं। सारी दुकानों पर एक बोर्ड है "बाय व्हाट यु लव, पे व्हाट यु वांट।" ऐसी ही दुकानें बनारस में घाट की सीढ़ियों पर भी होती हैं। मैंने कुछ पेंटिंग्स देखीं और आगे बढ़ आया। कुछ बच्चियाँ गुलाब बेच रहीं हैं। एक मेरे सामने आती है और अकेला देख किनारे से निकल जाती है। उसे भी पता है अकेले लोगों की जिंदगी में टूटे गुलाब की जगह कम ही होती है। मेरी आँखों के आगे बीते साल का दिसंबर और दिल्ली तैर रहे हैं। वहाँ मैं अकेला नहीं हूँ। "हम" हैं। बंगला साहिब की तरफ जाते हुए हमें देख एक लड़की सजाए हुए गुलाब आगे बढ़ाती है। उसने गुलाब ले लिया है। खरीद लेना कहना अच्छा नहीं लग रहा। लेकिन मुझे गुलाब उसी बच्ची ने दिया। मैंने गुलाब वापस कर दिया। अब गुलाब उसने दिया है। लड़की आगे बढ़ गयी है। गुलाब लाल है, मैं हरा हो गया हूँ।
चर्च स्ट्रीट रौशनी से भरा हुआ है। दूसरे छोर पर कुछ बार हैं। सामने की तरफ एक म्यूजिकल बैंड पुराने गाने गा रहा है। "सागर जैसी आँखों वाली ये तो बता तेरा नाम है क्या" आस पास लोग इकट्ठा हैं। सुन रहे हैं। साथ में गा रहे हैं। "एक अजनबी हसीना से यूं मुलाकात हो गयी" पर जोड़ों ने एक दूसरे का हाथ कस कर पकड़ लिया है। मैं आगे बढ़ गया हूँ, और लौटने के रास्ते पर हूँ। साथ में और भी लोग लौट रहे। धीरे धीरे गाने के सुर पीछे छूट रहे। मैं मेट्रो की तरफ बढ़ गया हूँ।

नए साल तक यहीं रहना है। करने को कुछ नहीं है। बस घूमना है शायद लिखा भी जाए कुछ। सावनदुर्गा की ट्रिप पर लिखने को बहुत कुछ था लेकिन अभी तक नहीं लिखा। असल में मैं आलस से भी ज्यादा आलसी हूँ। कविताओं के नाम पर जो कुछ लिखा वो इसी आलस के चलते। आलस न होता तो कहानियाँ लिखने की कोशिश करता। ख़ैर...! थकान नहीं हुई तो कल रामनगर जाऊँगा। हाँ! शोले वाला रामनगर। वहाँ की ट्रैकिंग सावनदुर्गा से आसान है। पास में अर्कावती नदी है, जो कावेरी में मिल जाती है। यहाँ शहर से बाहर निकलते ही खूब पहाड़ पड़ते हैं, और नदियाँ भी। झरने भी हैं लेकिन वो मैसूर के करीब हैं अभी वहाँ जाना संभव नहीं। वैसे पता है पूरा बैंगलोर ही पहाड़ों को काटकर बनाया गया लगता है। देखा जाए तो पूरी दुनिया को बनाने में ही हर रोज़ कितने तरह के लोग कितने पहाड़ काटते रहते हैं। कभी जीवन का पहाड़। कभी दुख का। कभी अंधेरे का। कभी अकेलेपन का,  तमाम तो हैं। यहाँ ठंढ न के बराबर है। इक्के दुक्के लोग ही गर्म कपड़ों में हैं जिनमें मैं भी हूँ।

अभी मेट्रो में हूँ। अधिक किताबें न देख, छू और खरीद पाने का थोड़ा दुख है। लेकिन मिल भी जातीं तो कौन सा मैं सब खरीद के पढ़ ही लेता। हमारी तरफ ही द्रविण भाषाओं की कितनी ही किताबें मिल जाती हैं! मूल तो छोड़िए, अनूदित भी न के बराबर मिलती हैं। कुछ दिनों पहले पुष्कल दादा के कहने पर मलयाली  कविताओं का संग्रह खोज रहा था, नहीं मिला। ऐसे ही उड़िया, असमिया या अन्य भाषाओं की कितनी ही किताबें मिलती हैं! अंग्रेजी वालों का सही है, किताबें बिक भी जाती हैं और दुकानों का स्टेटस भी बना रहता है। मैं भी काफी वक्त से सोच रहा कि अंग्रेजी किताबें भी थोड़ी बहुत पढ़ा ही करूँ। कोशिश तो कर ही सकता हूँ। लेकिन बस सोच के रह जाता हूँ। वही आलस। बाकी यहाँ के लोग भी उतनी ही हिंदी पढ़ते हैं जितने हमारी तरफ द्रविण या दूसरी अन्य भाषाएँ। हाँ, हिंदी गाने ज़रूर सुनते हैं, कई दुकानों पर रफ़ी साहब, मुकेश कुमार या लता मंगेशकर की गुनगुनाती आवाज़ सुनाई पड़ जाती है।

वैसे ये सब मैं प्रेजेंट में पास्ट को प्रेजेंट की तरह लिख रहा। काफी देर से एक ही कैफ़े में बैठा हूँ। समोसा खा लिया, इडली खा ली और छः चाय पी चुका। अब चलने का वक्त हुआ। आप भी जाइये, ज़िन्दगी गुजारिये। मौका लगे तो घूमिए और गौर करिये "शहर अच्छा या बुरा नहीं होता वहाँ बिताया वक्त उसे अच्छा या बुरा बनाता है।"
विदा।

26 दिसंबर 2020
बैंगलोर

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