बसंत, खिलने की इच्छा का ही नाम है...

कोई सावन आया और बीत गया, मन की बंजर धरती को नमी मिली। स्मृतियाँ हरियायीं। सर्दियों की रात में हरसिंगार खिला, सुबह होने तक जड़ों के आस पास की मिट्टी पर फूल-फूल गिरता रहा। इतना छोटा जीवन और इतना मोहक। जहाँ सांझ को फूल खिलते हम वहीं मिला करते। सुखी दिनों में हम कितने सुखी होते हैं ये फूलों ने जाना। एक दिन हरसिंगार का पेड़ वहाँ नहीं दिखा, उसकी जगह रिक्तता ने घेर ली। उस दिन से हमारा मिलना एक जीवन के लिए स्थगित हो गया। हम एक साथ उस तरफ कभी नहीं गए। इतना छोटा साथ और इतना सुखी। मैं से हम और हम से मैं होते हुए मैंने जाना कि दुख प्रेम का अनुगामी है। जहाँ जहाँ प्रेम है उसके पीछे दुख है। कई बार बस प्रेम दिखता है, कई बार दुख। प्रेम के छिप जाने पर दुख उसकी जगह ले लेता है।

अंतिम दिनों में संवाद का पुल टूटने लगता है, जिसपे हाथ पकड़े चलते हुए हम जीवन और उदासी की नदी पार करते अब उसी में फंसते चले जाते। चुप्पी की घनी झाड़ियां हमारे हृदय को जकड़ने लगतीं। गति बढ़ जाती। हम कभी कभार बोलते, कंधे से कंधा सटाये बैठे हुए कोई एक पूछता - अब? दूसरा कोई जवाब नहीं देता फिर भी समझ में आ जाता। बातें इतनी छोटी होतीं कि कई बार बिना बोले भी किसी आवाज़ का भ्रम होता। कोई आवाज़ नहीं होती। कई रातें जागकर बीतती, हम से मैं हुआ चित्त कविताओं की तरफ भागता, दीवारों पर अदृश्य चित्रकारी करता, स्मृतियों को ओढ़कर पड़ा रहता। धूप के अभाव में बीते हुए की अलगनी पे टंगा मन ओस में टपकता रहता।

पतझड़ में सब साफ साफ दिखने लगा। एक एक करके सपनों के पेड़ हरापन खोने लगे उनकी जगह सूने डर ने ले ली। अनिश्चितता बांह पसारे बुलाने लगी। फिर भी 'पतझड़ का मतलब है फिर बसंत आना' की उम्मीद ने जड़ों को जीवित रखा। जिन दिनों में मृत्यु हर क्षण आस-पास दिखती, आँखों का बाँध कहीं भी टूट जाता, यात्राओं में चलती रेल से कूद जाना स्वाभाविक लगता। उन्हीं दिनों में अच्छे समय की आस मन को टॉनिक देती। लेकिन हम जी गए, मैं जी गया। लोगों से अपने दुखों को बांटते हुए मैं अपने एकांत में लौट आया। दुख किसी पिटारी में बहुत जतन से रख दिए गए। पहले आवाज़ लौटी, फिर हँसी, फिर जीने की इच्छा। नींद गयी तो वापस नहीं आयी। सपनों का डर या डर के सपने नींद को धकेलते रहे। एक रोज़ स्टेशन पर बैठे बैठे सेमल के पेड़ को देखता रहा। बिना पत्तियों का पेड़, फूल इतने सारे, इतने सुर्ख़ कि जड़ों ने अपना रक्त पिला कर उन्हें पोसा हो। सेमल को देखते देखते मैं सेमल हो गया। हरे की जगह लाल, मुझमें इच्छाओं के बहुतेरे फूल। एक एक करके गिरते रहे। नए खिले, फिर गिरे। खिलने की ललक ने बचा लिया। मैं जहाँ पहुँचा वहाँ सुख और दुख के विशेष अर्थ खत्म हो गए। किसी बात पे बहुत खुशी नहीं हुई, दुख हँसी की आड़ लेकर छिप गए। किसी पेड़ की तरह सारे मौसम झेलकर मैं बचा रहा।

बचे रहने में सारी संभावनाएँ दिखाई देंगी- ये सोचते हुए उस पवित्र हवा की प्रतीक्षा करता रहा जो मनुष्यता को ऑक्सीजन देती है और उस धूप की जो मन की अतिरिक्त नमी को सोख लेता है। खिलने की इच्छा ही हमारी आख़िरी इच्छा हो ऐसा सोचते हुए दुनिया हमेशा सुंदर लगी। दुनिया जो हमारी है और नहीं भी है। जिसमें हम हैं और नहीं भी हैं। उसमें इतनी जगह तो है ही कि अगर चाहें तो अपनी जगह पर खड़े खड़े हम धूप, पानी और हवा से खिलते रहें। खिलें कि कोई हाथ हमें तोड़ने के लिए बढ़े और हम खुशी खुशी टूट जाएं। खिलना और टूटना हमारा प्रारब्ध है। सुख और दुख हमारी नियति फिर भी खिलने की इच्छा का नाम ही बसंत है।




Comments

Popular Posts