मेरा ईश्वर
मंदिर के मुहाने पर ही
अलग हो जाते हैं हमारे रास्ते
माँ चली जाती है अपने आराध्य के पास
और मैं मुड़ जाता हूँ
रंगों से भरे, झींसी से भीगे बगीचे में
माँ तीन चार बार जल चढ़ाने को बोल
बढ़ जाती है आगे
मेरी मनाही से हिलता रहता है लोटे का जल
मैं टहलने लगता हूँ प्रकृति की भौंहों सी कोमल घास पर
फूलों को उतारता हूँ अपनी चेतना में
सुगंध से आत्मा को सींचता हूँ
चिड़ियों से पूछता हूँ बूढ़े पेड़ों का हाल
आसमान से माँगता हूँ विस्तार
जाता हूँ इस दुनिया के पार
माँ को देखता हूँ
जब वो धोती रहती है अपने ईश्वर के जड़ पाँव
तभी मेरा ईश्वर चूमता है मेरी उँगलियाँ
भरता है मेरे घाव।
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