तेलिन दाई

महुए के नीचे कंडे पाथते हुए
तेलिन बांटती रहती जड़ों से अपने दुख
गाय गोरु से लेकर घर दुआर की चिंता
वो कंडे पाथती तो लगता
जैसे
ईश्वर पाथ रहा हो मनुष्यों को
सभ्यता की दीवार पर

जैसे ईश्वर गूंथता
धरती, वायु, जल, अग्नि, व्योम
वो भी गूंथती
घास-फूस, गोबर, पानी, मिट्टी
बनाती कोई शरीर और छोड़ देती पकने को

इधर मनुष्य पकता और सभ्यता को उर्वर बनाने में जुत जाता
उधर कंडे भी जुत जाते चूल्हे में
नाती की भूख में
अगहन बैसाख में
नातिन के गौन में
मृत्यु में मौन में
सब जगह काम आते कंडे

गाँव वाले कहते टोना जानती है तेलिन
किसी को घूरती है और फूंक देती है मंतर
किसी के पास से निकलते हुए पूछ लेती है कोई सवाल
'कहाँ जात हयु बहिनी' 'लइकवा कइसन बाटैं'
और बिगाड़ देती है काम
कर देती है किसी फसल की तारीफ़ तो खड़े खड़े सूख जाती हैं बालियां
गाय छूती है तो बियाने के बाद ही मर जाती है बछिया

तेलिन कभी कुर्सी या तखत पर नहीं बैठती
किसी के घर जाती
तो बैठी रहती ओसारे के मुहाने पर
या अशोक के नीचे बैठे बैठे ही कह लेती हाल
और यकीन मानिये कुछ नहीं बिगड़ता उसके आने से
ऐसा होता तो गाँव-गाँव नहीं होता
उजाड़ सन्नाटा होता
कहीं नहीं होता ईश्वर
कहीं नहीं बनते उपले

फिर भी ये वक्त ईश्वर का नहीं था
तेलिन का भी नहीं
उपलों का भी नहीं

ये मनुष्यों का समय था और जाने किन मनुष्यों का कि
जब भी ईश्वर आता उनके घर
बैठता ओसारे के मुहाने पर ही
कभी नहीं बैठा वो तखत पर
नीचे बैठे बैठे ही पूछ लेता हाल
और मनुष्य ईश्वर को अपदस्थ कर
उसकी जगह पर सवार
जाने किस मुँह से बताता जाता अपने दुख
चलता रहता अपनी चाल।

Comments

Popular Posts