मेसोपोटामिया की औरतें - २

मेसोपोटामिया की औरतें -२
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वे जिस तरह विदा करतीं अपने बेटों को शहर की तरफ
उसी तरह भोर में तारों को आकाश की सांस में लुप्त होते देखतीं
उन्होंने कभी नहीं देखा था शहर
आकाश ही उनका शहर था
जहाँ जाते हुए खो जाते थे उनके बेटे

वो सुबह उठतीं तो दुआरा बुहार के खड़ी हो जातीं सूरज की अगुआनी में
और गातीं
'आवा आवा सुरुज देवता आवा हो,
हमरे ललन के जिनगी बनावा हो'

उन्होंने हर चीज़ में मान लिया था ईश्वर
यहाँ तक कि
किसी बीमारी और महामारी को भी देवता और माई कहके सम्बोधित करतीं
वे लोहे से बनी थीं और गीत गाते हुए हर चीज़ में फूंक देती थीं जान
वे कोई जादूगरनी नहीं थीं लेकिन किसी जादू की तरह ही नचा रहीं थीं अपने हिस्से का संसार
अपने हाथों में

देखने वाले कहते कि वे कभी बीमार नहीं पड़तीं
पेट में सात माह का गर्भ लिए ही नाथ आती थीं बैल
हाथों में छाले लिये चला आती थीं हल, पीस लेती थीं दाल
खींच लेती थीं कुँए से बाल्टी
पैरों के दर्द में भी दुह लेती थीं गाय
खांसते हुए भी फूंक लेती थीं तीन वक्त का चूल्हा

शहरों से बहुत दूर वे बस इतना ही जानती थीं
कि जो भी गया उस तरफ वो वहीं खो गया
सबसे पहले नदी गयी और गायब हो गयी
फिर हवा, फिर पेड़, फिर पहाड़, फिर जानवर और फिर आखिरी आदमी भी नहीं लौटा उनकी तरफ
एक दिन जब गायब हो रही थी उनकी पगडण्डी
उन्होंने गाया एक और गीत जिसका मतलब था कि वे अब कुछ नहीं दे पाएंगी
और इस दुख में उन्होंने अपने गीत भी सौंप दिये शहर को जो कभी नहीं लौटे
सब कुछ लुटा देने के बाद वे भी लौट गयीं
अपनी दुनिया में

अब वे कहीं नहीं दीखतीं लेकिन अब भी किसी रोज़
गाती हुई किसी औरत की आत्मा में चली आती हैं वे
और बैठती हैं कुछ देर
वे कहीं नहीं होते हुए भी रहती हैं कहीं न कहीं

उन्हें याद करते हुए याद आता है कि वे बरगद जितनी जीवट थीं और न रहने पर भी
वे दिन और रात के बीच
जीने की तरह लगी रहीं
जिनसे होते हुए धीरे धीरे
डोलता रहा पूरा घर
इधर से उधर।

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